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कविता

 उड़ान अधुरी है अभी




किसी पैमाने में दिल धड़क उठी
अजीब कस्मकस में,
कति पतंग की दोर को समेते हुए,
हवाओं का रुख तय करने चला हूँ मैं ।

आँखों से बहते आँसुओं को क्या पता,
जमीन नहीं राख पर गिरना है,
हौसला थक हार कर उसी राख में,
आँसुओं को ढूंढने लगी ।

बंद दरबाजे के पिछे बंधी हूँ मैं,
खुली आसमान की ख्वाहिशों में,
बिखरी मोतीयों को समेतने लगी हूँ मैं ।
"उड़ान अधुरी हैं अभी"

लक्ष्य पर राख नहीं
ख्वाहिशों की चादर ओढ़ना है ।
चाहे, ना-चाहे नसीब बेरुख़ी सी हैं,
फिर भी पतझड़ पर पैगाम
लिखना है बाकी
 क्योंकि
"उड़ान अधुरी है अभी"



सुनीता दास
हिंदी शिक्षिका
लक्ष्मी नारायन उच्च बूनियादी विद्यालय

शिक्षा खंड : रामपुर, कामरुप

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