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नारी सशक्तिकरण एवं संरक्षण | Hindi article by Jupita Patar

 नारी सशक्तिकरण एवं संरक्षण

नारी सशक्तिकरण एवं संरक्षण  भारतीय नारी सृष्टि के आरम्भ से अनेक गुणों की आगार रही है| पृथ्वी की सी क्षमा, सूर्य जैसा तेज, समुद्र की सी शीतलता, पर्वतों की सी मानसिक उच्चता हमें एक साथ  नारी के ह्रदय में दृष्टिगोचर होती है| वह दया, करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है और समय पड़ने पर प्रचण्ड चण्डी भी| वह मनुष्य जीवन की जन्मदात्री है| वह माता के समान हमारी रक्षा करती है, मित्र और गुरू के समान हमें शुभ कार्यों के लिए प्रेरित करती है| बाल्यावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त वह हमारी संरक्षिता बनी रहती है| नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है| इस श्रद्धमयी नारी के विषय में प्रसाद जी लिखते हैं-       'नारी तु़म केवल श्रद्धा हो,      विश्वास रजत नग-पग तल में|      पीयूस स्रोत सी वहा करो,      जीवन के सुन्दर समतल में||` प्राचीन भारत के इतिहास के पृष्ठ, भारतीय महिलाओं की गौरवमयी कीर्ति से भरे पड़े हैं| हमारे पूर्वजों का कथन हैं कि जहाँ स्रियों की पूजा होती हैं, वहाँ सभी देवता निवास करते हैं| उन्हें पुरुषों के समान शिक्षा मिलती थी, पुरुषों के समान अधिकार भी प्राप्त थे| परिवार में उनका पद अत्यन्त प्रतिष्ठापूर्ण था| धार्मिक या सामाजिक कार्यों में ही नहीं, रणक्षेत्र में वे अपने पति को सहयोग देती थी| किन्तु संसार परिवर्तनशील है| उसकी प्रत्येक गतिविधि में प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता रहता है| देश की परतन्त्रता के साथ साथ स्त्रियों की भी स्वतन्त्रता का अपहरण हुआ| समाज की घृणित विचारधारा ने उन्हें पुरुषों के बराबरी के पद से हटा दिया| उनके सामाजिक जीवन का क्षेत्र सीमित कर दिया गया और उनकी स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया| आज भी उनकी स्थिति वैसी ही है, चाहे सैद्धान्तिक रूप में हम कुछ भी कहें, कुछ भी लिखें | आज भी अन्धविस्वास, अशिक्षा, कुबुद्धि आदि सामाजिक दोष उनके जीवन में घर किये हुए हैं| आज के युग में भी स्रियों की अनेक समस्याएँ हैं | देश में स्रियों की स्थिति में सुधार का प्रयास उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है| उन्हें स्वावलम्बी होने की सुविधाएँ दी जा रही हैं| अत: भारतीय स्रियों की सभी समस्याएँ उचित शिक्षा द्वारा ही सुलझ सकती हैं|                 आज हर्ष की बात है कि भारतवर्ष के नए संविधान में स्त्रियों की समस्या सुलझाने के लिए विभिन्न नियमों का समावेश किया गया है। उन्हें पुरुषों जैसी स्वतन्त्रता दी गयी है, उनके लिए किसी प्रकार के काम पर रोक नहीं रखी गयी है| आज स्त्री और पुरूष दोनों एक समान पद पर कार्यरत हैं, एक समान वेतन अर्जित करते हैं। कहीं कहीं पर तो स्त्री पुरूष से भी अधिक वेतन पा रही है, योगदान दे रही है, लेकिन बावजूद उसके पुरूष की तुलना में मान सन्मान नहीं मिल रहा है। कार्यकुशलता, विद्वता एवं पद की श्रेष्ठता के कारण एक दो बार कार्यालय में तो उन्हें थोड़ा बहुत सन्मान मिल रहें है, लेकिन घर के चारदीवारों के बीच वही स्त्री, पुरूष प्रधान संस्कृति के वर्चस्व का शिकार होते दिखाई दे रही है। स्त्री, जो कि निर्माणकर्ता होती है, उसी की पेट में जन्म लेकर पुरुष उसी पर अपना वर्चस्व, एकाधिकार क्यों स्थापित करना चाहता है? स्त्री और पुरूष यदि दोनों समान काम करते हैं, समान वेतन अर्जित करते हैं, तो पुरूष को ही प्रधान क्यों माना जाता है ? ऐसे कई सवाल है।                   ( महिला अधिकारों, महिला सशक्तिकरण, महिला उत्थान को विकास का मूल आधार मानते हुए अंतरास्ट्रीय स्तर पर अनेक घोषणाएँ एवं सुबिधाएँ पारित की गई हैं। इसके उपरांत भी नारी उत्पीड़न, बलात्कार, यौन-शोषण जैसी समस्यायें समाज में उन्मुक्त हो रही हैं। )                    मानवाधिकारों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और अंतराष्ट्रीय स्तर पर विस्तृत है। घरेलु मानव अधिकार संस्था की महत्व को समझते हुए यूनेस्को( UNESCO ) ने पहली बार सन १९४६ में इस तरह की संस्था कि स्थापना के बारे में अभिव्यक्ति की थी। अन्तत: वियाना में की गई घोषणा से अनेक देशों में राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं की स्थापना हुई। भारत में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए २८ सितम्बर,१९९३ को मानवाधिकारों के दमन को रोकने के लिए एवं उससे सम्बंधित आनुषंगिक मामलों के लिए 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग', 'राज्य मानवाधिकार आयोग' एवं मानव अधिकार न्यायालय के गठन हेतु प्रावधान करने के लिए भारत के राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी किया तथा बाद में संसद द्वारा 'मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,१९९३' के रूप में पारित किया गया। अंत में १८ दिसम्बर,१९९३ को लोकसभा ने मानव अधिकार संरक्षण विधेयक पारित किया। राष्ट्रपति के अनुमति के पश्चात ८ जनवरी, १९९४ को यह अधिनियम बन गया जिसे 'मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,१९९४ कहा गया। महिलाओं के राष्ट्रीय आयोग अधिनियम,१९९० की धारा के अधीन गठित आयोग है। ७ नवंबर,१९७६ को विवाहित महिलाओं के राष्ट्रीयता से सम्बंधित अधिकारों एवं महिलाओं के विरुद्ध शोषण के निषेध सम्बन्धी घोषणा सन १९७९ में महिलाओं के साथ होनेवाले सभी प्रकार के शोषण का विरुद्ध किया है। नये अधिनियम की धारा ४९८ (ए) को जोड़ने से दण्ड संहिता की कुछ कमियाँ दूर हो गयी हैं। इस धारा के अन्तर्गत किसी स्त्री के ससुराल में बढ़ती गई क्रूरता विचारणीय तथा गैर-जमानती अपराध  करार की गयी है और इसमें तीन वर्ष की कारावास के साथ जुर्माने की भी व्यवस्था है। अर्थात पारिवारिक झगड़ों को दृष्टिगत रखते हुए भारतीय संसद ने १९७४ में एक पारिवारिक न्यायालय की स्थापना करने के बारे में एक कानून बनाया, जिसका मुख्य उद्देश्य पारिवारिक झगड़ों में मुख्यतः नारी अधिकारों की रक्षा करना था और नारी को नारी उत्पीड़न से मुक्त होकर उसके 'स्व' को सम्मानित करना था।               निष्कर्ष रूप में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने महिला मानवाधिकारों को विश्वव्यापी स्वरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्त्री मानवाधिकारों अवधारणात्मक परिपेक्ष्य को स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि महिला अधिकारों के हनन ने ही उसके लिए मानवाधिकार प्राप्ति की दिशा प्रदान की है। महिला भी एक मानव है और वह प्रत्येक मानवाधिकारों की अधिकारिणी है, किन्तु आज वैश्वीकरण में 'महिला हित संरक्षण' के उलंघन का मामला किसी राष्ट्र का घरेलू अधिकारिता का विषय नहीं रहकर अंतराष्ट्रीय विषय बन गया है। अन्ततः वर्तमान में किये जा रहे विभिन्न प्रयास सराहनीय हैं, इनसे महिलाओं के लिए मानवाधिकारों की राह आसान होगी, किन्तु अभी महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लम्बा सफर तय करना होगा।   जुपिता पाटर सहकारी अध्यापिका पाण्डु महाविद्यालय गुवाहाटी-१२

        भारतीय नारी सृष्टि के आरम्भ से अनेक गुणों की आगार रही है| पृथ्वी की सी क्षमा, सूर्य जैसा तेज, समुद्र की सी शीतलता, पर्वतों की सी मानसिक उच्चता हमें एक साथ  नारी के ह्रदय में दृष्टिगोचर होती है| वह दया, करुणा, ममता और प्रेम की पवित्र मूर्ति है और समय पड़ने पर प्रचण्ड चण्डी भी| वह मनुष्य जीवन की जन्मदात्री है| वह माता के समान हमारी रक्षा करती है, मित्र और गुरू के समान हमें शुभ कार्यों के लिए प्रेरित करती है| बाल्यावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त वह हमारी संरक्षिता बनी रहती है| नारी का त्याग और बलिदान भारतीय संस्कृति की अमूल्य निधि है| इस श्रद्धमयी नारी के विषय में प्रसाद जी लिखते हैं-

      'नारी तु़म केवल श्रद्धा हो,

     विश्वास रजत नग-पग तल में|

     पीयूस स्रोत सी वहा करो,

     जीवन के सुन्दर समतल में||`

        प्राचीन भारत के इतिहास के पृष्ठ, भारतीय महिलाओं की गौरवमयी कीर्ति से भरे पड़े हैं| हमारे पूर्वजों का कथन हैं कि जहाँ स्रियों की पूजा होती हैं, वहाँ सभी देवता निवास करते हैं| उन्हें पुरुषों के समान शिक्षा मिलती थी, पुरुषों के समान अधिकार भी प्राप्त थे| परिवार में उनका पद अत्यन्त प्रतिष्ठापूर्ण था| धार्मिक या सामाजिक कार्यों में ही नहीं, रणक्षेत्र में वे अपने पति को सहयोग देती थी| किन्तु संसार परिवर्तनशील है| उसकी प्रत्येक गतिविधि में प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता रहता है| देश की परतन्त्रता के साथ साथ स्त्रियों की भी स्वतन्त्रता का अपहरण हुआ| समाज की घृणित विचारधारा ने उन्हें पुरुषों के बराबरी के पद से हटा दिया| उनके सामाजिक जीवन का क्षेत्र सीमित कर दिया गया और उनकी स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया| आज भी उनकी स्थिति वैसी ही है, चाहे सैद्धान्तिक रूप में हम कुछ भी कहें, कुछ भी लिखें | आज भी अन्धविस्वास, अशिक्षा, कुबुद्धि आदि सामाजिक दोष उनके जीवन में घर किये हुए हैं| आज के युग में भी स्रियों की अनेक समस्याएँ हैं | देश में स्रियों की स्थिति में सुधार का प्रयास उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है| उन्हें स्वावलम्बी होने की सुविधाएँ दी जा रही हैं| अत: भारतीय स्रियों की सभी समस्याएँ उचित शिक्षा द्वारा ही सुलझ सकती हैं|

                आज हर्ष की बात है कि भारतवर्ष के नए संविधान में स्त्रियों की समस्या सुलझाने के लिए विभिन्न नियमों का समावेश किया गया है। उन्हें पुरुषों जैसी स्वतन्त्रता दी गयी है, उनके लिए किसी प्रकार के काम पर रोक नहीं रखी गयी है| आज स्त्री और पुरूष दोनों एक समान पद पर कार्यरत हैं, एक समान वेतन अर्जित करते हैं। कहीं कहीं पर तो स्त्री पुरूष से भी अधिक वेतन पा रही है, योगदान दे रही है, लेकिन बावजूद उसके पुरूष की तुलना में मान सन्मान नहीं मिल रहा है। कार्यकुशलता, विद्वता एवं पद की श्रेष्ठता के कारण एक दो बार कार्यालय में तो उन्हें थोड़ा बहुत सन्मान मिल रहें है, लेकिन घर के चारदीवारों के बीच वही स्त्री, पुरूष प्रधान संस्कृति के वर्चस्व का शिकार होते दिखाई दे रही है। स्त्री, जो कि निर्माणकर्ता होती है, उसी की पेट में जन्म लेकर पुरुष उसी पर अपना वर्चस्व, एकाधिकार क्यों स्थापित करना चाहता है? स्त्री और पुरूष यदि दोनों समान काम करते हैं, समान वेतन अर्जित करते हैं, तो पुरूष को ही प्रधान क्यों माना जाता है ? ऐसे कई सवाल है।

                  ( महिला अधिकारों, महिला सशक्तिकरण, महिला उत्थान को विकास का मूल आधार मानते हुए अंतरास्ट्रीय स्तर पर अनेक घोषणाएँ एवं सुबिधाएँ पारित की गई हैं। इसके उपरांत भी नारी उत्पीड़न, बलात्कार, यौन-शोषण जैसी समस्यायें समाज में उन्मुक्त हो रही हैं। )

                   मानवाधिकारों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक और अंतराष्ट्रीय स्तर पर विस्तृत है। घरेलु मानव अधिकार संस्था की महत्व को समझते हुए यूनेस्को( UNESCO ) ने पहली बार सन १९४६ में इस तरह की संस्था कि स्थापना के बारे में अभिव्यक्ति की थी। अन्तत: वियाना में की गई घोषणा से अनेक देशों में राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं की स्थापना हुई। भारत में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए २८ सितम्बर,१९९३ को मानवाधिकारों के दमन को रोकने के लिए एवं उससे सम्बंधित आनुषंगिक मामलों के लिए 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग', 'राज्य मानवाधिकार आयोग' एवं मानव अधिकार न्यायालय के गठन हेतु प्रावधान करने के लिए भारत के राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी किया तथा बाद में संसद द्वारा 'मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,१९९३' के रूप में पारित किया गया। अंत में १८ दिसम्बर,१९९३ को लोकसभा ने मानव अधिकार संरक्षण विधेयक पारित किया। राष्ट्रपति के अनुमति के पश्चात जनवरी, १९९४ को यह अधिनियम बन गया जिसे 'मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,१९९४ कहा गया। महिलाओं के राष्ट्रीय आयोग अधिनियम,१९९० की धारा के अधीन गठित आयोग है। नवंबर,१९७६ को विवाहित महिलाओं के राष्ट्रीयता से सम्बंधित अधिकारों एवं महिलाओं के विरुद्ध शोषण के निषेध सम्बन्धी घोषणा सन १९७९ में महिलाओं के साथ होनेवाले सभी प्रकार के शोषण का विरुद्ध किया है। नये अधिनियम की धारा ४९८ () को जोड़ने से दण्ड संहिता की कुछ कमियाँ दूर हो गयी हैं। इस धारा के अन्तर्गत किसी स्त्री के ससुराल में बढ़ती गई क्रूरता विचारणीय तथा गैर-जमानती अपराध  करार की गयी है और इसमें तीन वर्ष की कारावास के साथ जुर्माने की भी व्यवस्था है। अर्थात पारिवारिक झगड़ों को दृष्टिगत रखते हुए भारतीय संसद ने १९७४ में एक पारिवारिक न्यायालय की स्थापना करने के बारे में एक कानून बनाया, जिसका मुख्य उद्देश्य पारिवारिक झगड़ों में मुख्यतः नारी अधिकारों की रक्षा करना था और नारी को नारी उत्पीड़न से मुक्त होकर उसके 'स्व' को सम्मानित करना था।

              निष्कर्ष रूप में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने महिला मानवाधिकारों को विश्वव्यापी स्वरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। स्त्री मानवाधिकारों अवधारणात्मक परिपेक्ष्य को स्पष्ट करते हुए कहा जा सकता है कि महिला अधिकारों के हनन ने ही उसके लिए मानवाधिकार प्राप्ति की दिशा प्रदान की है। महिला भी एक मानव है और वह प्रत्येक मानवाधिकारों की अधिकारिणी है, किन्तु आज वैश्वीकरण में 'महिला हित संरक्षण' के उलंघन का मामला किसी राष्ट्र का घरेलू अधिकारिता का विषय नहीं रहकर अंतराष्ट्रीय विषय बन गया है। अन्ततः वर्तमान में किये जा रहे विभिन्न प्रयास सराहनीय हैं, इनसे महिलाओं के लिए मानवाधिकारों की राह आसान होगी, किन्तु अभी महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लम्बा सफर तय करना होगा।

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जुपिता पाटर

सहकारी अध्यापिका

पाण्डु महाविद्यालय

गुवाहाटी-१२



चित्रण : संगीता काकति


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