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रंगाली बिहू : सक्षिप्त परिचय | Hindi article by Malabya das

  रंगाली बिहू : सक्षिप्त परिचय

            


           बिहू असम के सबसे लोकप्रिय संस्कृतिक त्यौहार है । असम के सभी निवासी वर्ष में मूलतः तीन बिहू मनाते हैं जो तीन ऋतुओं के प्रतीक हैं । जैसे :- बहाग बिहू अथवा रंगाली बिहू, काति बिहू अथवा कंगाली बिहू और माघ बिहू अथवा भोगाली बिहू । असम एक कृषिप्रधान अंचल होने के नाते इन तीनों बिहू का संबंध कृषिकर्म अर्थात प्रकृति से हैं । सभी असमीया लोग जाति धर्म की भेदभाव से मुक्त होकर यह उत्सव बड़े धुम धाम से मनाते है । बिहू के जरिए लोगों के बीच एकता, भाईचारा मजबूत होते हैं ।
                बहाग अथवा रंगाली बिहू बैशाख (अंग्रेज़ी अप्रैल) महीने में मनाया जाता है । असमीया शब्द 'रंगाली' अर्थात 'रंगीन' बिहू जो कि बसंत ऋतु के आगमन को दर्शाता है तथा इस समय कृषकों के कृषिकर्म की शुरुआत का महत्वपूर्ण समय माना जाता है  । बसंत के आगमन पर प्रकृति नवरुप सौंदर्य से खिल उठता है । प्रकृति के अनुपम सौंदर्य के स्पर्श से युवक-युवतियों के मन रोमांचित हो उठते हैं और इस पल को वे बिहू पर्व के रुप में भरपूर आनंद लेते हैं। खुशी से एक दूसरे से मिलते हैं और अपने मन की बात बिहूगीत के रूप में गाकर सुनाते हैं। प्रेम निवेदन का यह अनोखा शैली बिहू उत्सव को अधिक रंगीन बना देती है ।
            रंगाली बिहू परंपरागत तरीकों से समग्र असम प्रदेश में हर्षोल्लास के साथ लोग मनाते है । चैत्र मास के अंतिम दिन से बैशाख मास के अंतिम तक यह त्यौहार मनाया जाता है । असमीया नववर्ष की आरंभ बैशाख महीने से माना जाता है । असम में बिहू पर्व का प्रारंभ कब से हुआ, इस पर स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता;फिर भी प्राचीन 'आहोम' सल्तनत के समय से ही बिहू पर्व की परंपरा आज तक प्रचलित है । 'बिहू' शब्द 'डिमासा' जनजाति की भाषा से लिया गया है । समय के बदलाव के साथ साथ प्राचीन बिहू रुप आज के आधुनिक 'मंचबिहू' रूप तक परिवर्तित हो गया है।फिर भी इसकी मौलिकता में कमी नहीं आई ।
             बहाग बिहू के प्रथम सात दिन को अलग अलग नाम से जाना जाता है । चैत्र महीने के अंतिम दिन में मनाये जानेवाले 'गरु बिहू' से लेकर 'मानुह बिहू', 'गोसाई बिहू', 'तातर बिहू', 'नांगलर बिहू', 'घरचीया जीव जंतुर बिहू' और 'चेरा बिहू' आदि कई नामों से प्रचलित हैं ।
             बहाग अथवा रंगाली बिहू के प्रथम दिन में लोग 'गरु बिहू' मनाते है। उस दिन गरु अर्थात गाय को अच्छी तरह नहलाते है और शरीर में तेल, हल्दी लगाकर लौकी, बैंगन आदि खिलाते हैं । गाय की स्वस्थ शरीर की कामना करते हुए कृषक इस तरह गाना गाते है--
    " दीघलती दीघल पात, गरु कोवाउ जात जात ।
     मार सरु, बापेर सरु, तइ हबि बर गरु ।
     लाउ खा, बैंगना खा, बछरे बछरे बाढ़ि जा ।।"
          दूसरे दिन में मनाये जानेवाले 'बर बिहू' अथवा 'मानुह बिहू' के दिन प्रातः काल लोग मंदिर, नामघर आदि दर्शन करके नाम कीर्तन किया करते हैं और समाज की भलाई के लिए प्रार्थना करते हैं । इस दिन लोग एक दूसरे को 'बिहूवान' यानि असमीया 'गामोछा' उपहार स्वरूप भेंट प्रदान करते है । यह अनुपम भेंट असमीया संस्कृति के प्रमुख चिह्न स्वरूप है । यह बिहूवान बड़े प्रेम से अपनों को प्यार तथा सम्मान की निशानी के रुप में दिया जाता है । इसी दिन लोग खासकर युवक-युवतियाँ बिहूगीत, हुचरि आदि गाकर बिहूनृत्य करके खुशियाँ प्रकट करतें हैं । युवतियाँ मुगा,पाट की पारंपरिक पोशाक 'मेखला-चादर' पहनकर बिहू नृत्य करती हैं । गाँव के घर घर जाकर आंगन में वे बिहू नृत्य करतें तथा इस तरह बिहू हुचरि गीत गाया करते हैं---


                                            "अतिकै चेनेहर मुगारे महूरा,         
                                            ओइ तातोकै   चेनेहर ओई माकू,
                                             तातोकै चेनेहर बहागर बिहूटि             
                                                ओइ नेपाति केनेकै थाको ।
                                                बहाग बिहू रंगाली, 
                                                 आमि करो धेमाली, 
                                                       बहागते महूरा, 
                                                   बहागते नाचनी उरे" ।।

           बिहू के समय को नाच, गान के अलावा धार्मिक दृष्टि से भी पवित्र समय माना जाता है । इन दीनों लोग भगवान पर फूल-प्रसाद चढ़ाते और अनुज अपने अग्रजों से आशीर्वाद माँगते हैं । असम के अनेक जगह पर बिहू के समय परंपरागत लोकनृत्य, खेल-तमाशा आदि प्रतियोगिता के रुप में आयोजित किया जाता है । जैसे :- 'मह जुज़', 'कणि जुज़' आदि । ये सब असम के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहर हैं ।  पर दुर्भाग्य की बात यह है कि समय के चलते इन परंपरागत स्थानीय खेल-कुद, लोकनृत्य आदि की लोकप्रियता आधुनिक युवावर्ग में दिन व दिन कम होती दिखाई दे रही है । कृषिप्रधान बिहू उत्सव कुछ हद तक रंगमंच की आधुनिक सांस्कृतिक कार्यक्रम तक सीमित होकर रह गया । प्राचीन बिहू हुचरि लोकगीत का स्वरूप बदलकर आज के आधुनिक बिहूगीत का रुप ले लिया । बिहूगीत में प्रयोग होनेवाले  प्राचीन बाद्ययंत्र जैसे :- ढोल, पेपा, गगना आदि के साथ साथ आधुनिक बाद्ययंत्र के प्रयोग से इसके स्वरूप निश्चित रूप से बदल गए । फिर भी हमें रंगाली बिहू की नींव को नहीं भुलाना चाहिए ।।
                           ---समाप्त---

सात बिहू के नाम के  स्रोत :  
          ग्रन्थ--  "संगक्षिप्त असमीया बिश्वकोष" 
        लेखक---   " शान्तनु कौशिक बरुवा" ]

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मालव्य दास
हिंदी शिक्षक
छमरीया हाईस्कूल
शिक्षा खंड : छमरीया
कामरुप





चित्रण : पुबाली शइकीया दास



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