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হিন্দী প্ৰবন্ধ, , कबीर दास, बबिता हाजरिका, ৩য় বছৰ ৩য় সংখ্যা

 कबीर दास




       मेरे प्रिय साहित्यकारों में 'कबीर दास' ऐसा नाम है जिसने मुझे बचपन से ही आकर्षित किया । एक ओर उनकी सादगी , मानवीय मुल्यों की प्रतिष्ठा , झूठे दिखावे की पोल खोल , हिंदु-मुसलमानों की एकता पर बल , दूसरी ओर उनका आध्यात्मिक का अनूठा संसार मुझे अपनी ओर खीचंता था ।
       मैं यह जानकर दंग थी कि उन्होंने कभी कागज कलम छुआ ही नहीं था -
     " मसि कागद छूवों नहीं , कलम गही नहीं हाथ ।
       चारों जुग का महातम , मुखहीं जनाई बात ॥ "

       तब तक मेरी सोच यही थी कि बड़ी बड़ी किताबें , धार्मिक ग्रंथ , डिग्रीयाँ ही हमें ज्ञानी और महान बनाती है , पर जितना कबीर जी को जानने लगी सत्य का भान होने लगा ।
      हम सदा भगवान से सुख माँगते है। हमारी हर प्रार्थना में " माँगना " ही तो होता है फिर चाहे वह रुपये - पैसे हो , नौकरी हो , संतान हो , निरोगी काया हो और जाने क्या क्या । पर जब कबीर की प्रार्थना सुनी , मुझें लगा कितने स्वार्थी और लोभी है हम लोग -
 " साई इतना दिजिए जामें कुटुब समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ , साधु भी न भूखा जाए ॥ "

      कुछ समय बाद घर और बाहर के धार्मिक वातावरण से मैं प्रभावित होकर दीप-धूप , घंटी , तिलक को ही जीवन का आधार मानने लगी थी । तब उनकी सीख थी -
   " जप माला छापे तिलक सरे न काई कामु
    मन काँचे नाचे सदा , साँचे राँचे रामू ।। "

       मेरा सीमित ज्ञान जब मुझे मंदिरों की मूर्तियों में ही भगवान का आभास दे रहा था, तब उनकी वाणी  ने बताया -
 " पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहाड़
 ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार "

       हिंदु - मुसलमानों को आपसी द्वेष के कारण उन्हे डाँट लगाई -
" जो तु बामन - बामनी जाया तो आन बाट से क्यू नो आया 
जो तु तुरकन - तुरकर्नी जाया तो भीतरी खतना क्यों न कराया ।। "

      कबीर जी सदा प्रेम (करुणा ) को भक्ति का आधार मानते थे । जो प्रेम से अछूता रहता है , वह भक्त नहीं हो सकता । वे कहते है -
" पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ पंडित भया न कोई ,
 ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ।। "

       कबीर जी मानते थे कि सही मायने में प्रेम को समझने के लिए अहंकार का त्याग जरूरी है इसके बिना ईश्वर की गली मे प्रवेश असंभव है ।
" जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नहि
प्रेम गली अति सांकरी तामें दो जन न समाहिं ॥ "

       और अंत में उन्होंने आत्मा को परमात्मा का ही अंश स्वीकार किया है और कहते है - 
" जल में कुंभ है, कुंभ में जल है, भीतर बाहर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जल ही समाना, यह तथ कह्यौ ग्यानी ॥ "
       अर्थात जल से भरे तालाब रूपी परमात्मा का ही अंश शरीर रूपी कुंभ या घड़े में डाला गया है जो आत्मा कहलाती है यानी आत्मा परमात्मा का ही अंश है । जब शरीर रूपी कुंभ फूट जाता है तो यह आत्मा फिर उसी परमात्मा में विलीन हो जाती है । 
     " मोंको कहाँ ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास में ।
       न मैं दवल , न मैं मस्जिद ना काबे कैलास में ।
       न तो कोनो क्रिया कर्म में , न ही योग वैराग में ।
       खोजी होय तो तुरत मिलेहो पल भर की तालास में । "

       कहैं कबीर सुन भाई साधो , सब साँसों की साँस में ।
कबीर की इन पंक्तियों ने मुझ ईश्वर के एकत्व और निर्गुण रूप के साथ मेरा परिचय कराया । उसके घट-घट के वासी होने पर मेरी आस्था हो गई और बाह्य आडम्बरों से हम मात्र दूसरों और स्वयं को बहकावे में ही रखते है यह समझ आया पर - 
" खोजी होय तो तुरत मिलेहो पल भरकी तालास में,
 कहैं कबीर सुन कई साधो सब साँसो की साँस में "
       यह बात मुझे उस समय समझ में नहीं आई थी । गुरु का अभाव था , पर आज मैं समझती हूँ कि हमारी साँसे में ही उस ईश्वर का बसेरा होता हैं । कबीर की उलट बासियाँ जो कि बार-बार हमें अपने अंतर में झांकने की शिक्षा देती है । इंगला-पिंगला-सुषुमना नाड़ी क्या है ये तो अब जाना है और मेरे जैसे अनेकों ने शायद उन्हीं की प्ररेणा से समानता और जाति-पाँति की व्यर्थता को समझा है ।

       कबीर दास हर काल और युग के लिए महत्वपूर्ण युगनायक है , जिनकी बातें हर युग में प्रासंगिक होती है । मेरा शत शत नमन इस सत्य पथ प्रदर्शक को , युगद्रष्टा को ।




बबिता हाजरिका
हिंदी शिक्षिका
छयगाँव चम्पकनगर गर्ल्स हाईस्कूल
शिक्षाखंड : छयगाँव

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