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कैसे कहूँ मैं, হিন্দী কবিতা, ৩য় বছৰ ৩য় সংখ্যা,

 कैसे कहूँ मैं




ये जिंदगी कितने रंग लिए चलते है
ख्वाब टूट जाते है ,
मगर आखिरी सांस तक
अरमानों के दिये जलाना
न कभी भूलते है ।

कैसे कहूँ मैं
उलझनों को सुलझाते
हालातों से खुद उलझ जाते हैं
यादों के सहारे बस
जिंदगी गुजर जाती है ।

कैसे कहूँ मैं
अपने लफ्ज़ ही आज
कम पड़ गए है ,
रंगों से भरी इस दुनिया में
किसी की सिसकियां हम सुन रहे हैं ...


डॉ मिनाक्षी देवी
छयमाइल , गुवाहाटी

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