बिष्णु प्रसाद राभा : सांस्कृतिक और राजनैतिक योगदान
असम के कला संस्कृति के दौर में महापुरुष शंकरदेव के बाद बिष्णुप्रसाद राभा जी का नाम चिरस्मरणीय है । जिस तरह शंकरदेव जी ने असम की संस्कृति को विकसित करने का प्रयास किया था , उसी तरह बिष्णुप्रसाद जी ने भी असम की कृष्टि-संस्कृति के बारे में लोगों तक पहुचाने में अधिक प्रयास किया था ।
'बिष्णुप्रसाद राभा' जी ने असम की सांस्कृतिक जगत को एक नया पहचान कराया , साथ में स्वाधीनता संग्रामी के रूप में भी असम को बहुत कुछ सिखाया । आप कभी भी हार माननेवाले नहीं थे । असम की संस्कृति ब्रह्मपुत्र नदी की तरह विशाल है । उनके अनुसार असम की संस्कृति को जीवित रखने के लिए असम के जाति-जनजातियों के कृष्टि-संस्कृति को जीवित रखना होगा । उन्होंने कहा था कि ब्रह्मपुत्र के शक्ति उसके उपनदियाँ पर निर्भर है , अगर उपनदियाँ सुख गया ब्रह्मपुत्र भी सुख जायेंगे । उसी तरह असम की विभिन्न जनजातियों के भाषा, जाति, संस्कृति से पूर्ण होते है असमीया संस्कृति । इसलिए असमीया संस्कृति को परिपूर्ण करने के लिए सभी जनजातियों के भाषा, संस्कृति को एक होकर काम करना होगा । यही चाहत लेकर राभा जी आगे बढ़े थे । इसलिए उन्होंने गाँव-गाँव जाकर सभी लोगों को एकत्र करने का काम किया करते थे ।
असमीया कृष्टि-संस्कृति का मूल है कृषि । हर त्यौहार कृषि से जुड़े होते है । इसलिए ग्रामीण जन-गण के बीच रहकर वो कर्म करते थे । संगीत जगत को भी आगे बढ़ाया । आप 'कलागुरु' नाम से प्रसिद्ध हुए , क्योंकि संगीत , नृत्य , चित्रकला , नाटक , सिनेमा सभी दिशाओं में आप उस्ताद थे । आपने काशी विश्वविद्यालय के रंगमंच पर 108 नृत्य प्रदर्शन करके सबको मोहित किया था । आपके नृत्य 'नटराज' देखकर पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ने आपको 'कलागुरु' नाम से पुकारा था । आपके संगीत में जातीय चेतना और स्वाधीनता संग्राम के झलक उभर आते है ।
आप संस्कृति के पुजारी थे , साथ में एक सफल राजनीतिज्ञ भी थे । संग्रामी भावना के कारण आप पढ़ाई के समय में ही स्वाधीनता संग्राम में कूँद पड़े । कलकता के रिपन कॉलेज में पढ़ाई करते समय स्वाधीनता संग्राम पुरे भारत के साथ कलकता में भी इसका प्रभाव दिखाई पड़ते थे , राभा जी भी इसमें कूद पड़े । अंग्रेजी सिपाही उन्हें पकड़ने के लिए ढूँढते फिरते थे । इसलिए आप वहाँ से भाग कर कोचबिहार आ गए और भिक्टोरिया कॉलेज में दाखिल हो गए । लेकिन वहाँ भी अंग्रेजी सिपाही के नज़र बंद हो गए । अंग्रेजी शासन के विरुद्ध कार्य करने कारण सिपाही उनसे हमेशा भिड़ते थे । इसलिए एक दिन उनसे तंग आकर एक कविता लिखकर दीवारों में छिपका दिया –
“ राज्ये आछे दुइटि पाटा
एकटि कालो एकटि सादा ।
राज्येर यदि मंगल चाउ ,
दुइटि पठाई वली दाऊ "
इसके बाद अंग्रेज सरकार ने राभा को कोचबिहार छोड़ने का आदेश दिया । वे वापस असम आकर गाँव-गाँव घूमते रहे और लोगों को स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने का संदेश देने लगा । विप्लवी गीत गाकर उत्साहित करने लगा । उसी समय उनके जीवन में बहुत सारे घटनाएं घटी । माँ की देहांत हो गई, पत्नी की मृत्यु हुई और पढ़ाई भी छुट गया । कुछ दिनों के बाद वह फिर कलकता गए और वहाँ 'बाही' नामक पत्रिका के साथ जुड़ गए । 'बाही' के चित्रलेखा आख्यान के जरिए सांस्कृतिक काम में जुट गए । असम में भी ज्योतिप्रसाद जी और फनी शर्मा जी के साथ मिलकर वाण थियेटर आरम्भ किया तेजपुर नामक जगह में । असमीया सिनेमा का प्रारम्भ हुआ । ‘चिराज’ नाटक में उन्होंने अभिनय किया ।
लेकिन इन सभी काम के साथ-साथ संग्रामी जीवन भी नहीं छोड़ा था । उस समय कलकता में कम्युनिस्ट पार्टी का उत्थान हुआ । पत्नी प्रियलता के मृत्यु के बाद वे बहुत दुःखी थे, उस समय कमरेड बंधुओं ने उन्हें सहारा दिया और बाद में उन्होंने भी कम्युनिस्ट को अपनाया । 'मार्क्सवाद-लेनिनवाद' से प्रेरित होकर देश के लोगों को संदेश देने के लिए गाँव-गाँव घूमते रहे । उधर स्वाधीनता संग्राम भी चरम पर आ गए । सन 1941-1950 तक का समय उनके लिए बहुत भयंकर था । स्वाधीनता के बाद कांग्रेस शासन की गादी पर बैठ गए । लेकिन राभा जी खुश नहीं थे । उन्होंने स्वाधीनता को झूठा करार देते हुए एक सभा में चिल्लाकर कहा कि " ये आजादी झूठा है " । इस बात से कांग्रेस सरकार उन्हें क्रांतिकारी या विद्रोही मानकर पकड़ने के लिए इनाम घोषित कर दिया । बाद में उन्हें जेल हो गए । लेकिन फिर भी आप हारे नहीं । अपना संग्रामी पहचान जीवित रखकर जेल से छुटने के बाद राजनीति में कूद पड़े ताकि लोगों को उनका हक दे सके ।
'बिष्णुप्रसाद राभा' के जीवन शैली बहुत ही आदरणीय है । वे असमीया जाति के एक सफल पिता स्वरूप तथा एक संग्रामी , सांस्कृतिक पुरुष थे । उनके जाति , धर्म , वर्ण सभी लोगों को एकत्रित करने का गुण अद्वितीय थे ।
गीतारानी डेका
हिंदी शिक्षिका
तुलसीबारी बहुमुखी उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
शिक्षा खंड : रंगिया
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