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,হিন্দী কবিতা, बबिता हाजरिका,एकता की सुबह

एकता की सुबह


जी चाहता है , कुछ करूँ
ये सीमाएं , परिधियाँ , बँटवारे सब समाप्त कर दूँ ।
ना कुछ तेरा रहे न मेरा
सब का सब हो ...
तू और मैं का फर्क़ ही मिट जाए
बस 'हम' ही रह जाए ...
जमींन पर खींची लकीरें मिट जाए 
आकाश पर बनी अदृश्य सीमाएँ समाप्त हो जाए ...
मन में पैंठी दीवारें गिर जाएँ ।
क्यों बँटे रहे ? क्यों बाँटते रहे ?
लिंग , धर्म , देश , जाति , संस्कृति , परम्परा , विकसित , अविकसित , अमीरी , गरीबी ,
कुल-वंश के नाम पर
क्यों नहीं दिखाई दे
हर किसी में अपनत्व , देवत्व ,
श्रद्धा , प्रेम , परोपकार ।
कटुता , खिन्नता , स्पर्धा
से रहित हो सबके मनोविचार ।
मैं प्रतीक्षा में हूँ
उस सुबह की जहाँ
ना केवल , समाज , देश , विश्व 
बल्कि पूरे ब्रह्माण्ड में 
ये एकता गुंजायमान हो ।


बबिता हाजरिका
हिंदी शिक्षिका
छयगाँव चम्पकनगर गर्ल्स हाईस्कूल
शिक्षा खंड : छयगाँव



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