header ads

হিন্দী প্ৰবন্ধ, महापुरुष शंकरदेव और उनके बरगीत, डॉ. मीनाक्षी देवी

 महापुरुष शंकरदेव और उनके बरगीत





  उत्तर पूर्वांचल के असम राज्य के 'मध्यमणि' महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव जी को ही माने जाते है । शंकरदेव जी का जन्म सन् 1449 को नगांव जिले के बरदोवा नामक स्थान पर हुआ । उनकी बुद्धिवृत्ति और असाधरणता के कारण वे लोक प्रसिद्ध हो गए । असम में वैष्णव धर्म का प्रचार-प्रसार महापुरुष शंकरदेव और उनके शिष्य माधवदेव जी द्वारा ही किया गया है । वैष्णव धर्म के प्रति उनका योगदान भारतीय समाज में सर्वविदित है । शंकरदेव ने उनके शिष्यों के साथ मिलकर ‘एक शरण नाम धर्म’ का प्रचार एवं प्रसार किया । इसके अतिरिक्त ‘बरगीत’, ‘भाओना ’, ‘सत्रीया नृत्य’, ‘अंकिया नाट’ के जन्मदाता महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव ही है । शंकरदेव ने अपनी रचनाओं को ब्रजबुलि भाषा में लिखा है जो हिंदी भाषा का ही एक रूप है । आलोच्य विषय के अंतर्गत शंकरदेव के बरगीत को लिया गया है ।
       ‘बरगीत’ की भाषा ब्रजबुली है तथा यह सुनने में अत्यन्त सुमधुर है । बरगीत विविध रागों मे बंधा होता है, जैसे- आशोवारी , धनश्री , सुहाई , बसन्त , केदार आदि । शंकरदेव के बरगीत में प्रमुखत: दास्य भक्ति का रूप उपलब्ध होते है । बरगीत को दो भागों में गाया जाता है- ध्रुं और पद जहां माधवदेव के बरगीत में वात्सल्य भक्ति का प्रमुख रूप देखने को मिलता है । यथा -
                           “ पावे परि हरि करोहों काटरि
                                            प्राण राखबि मोर । 
                                  विषय विषधर विषे जरजर
                                              जीवने नारहे थोर । "  

       उपरोक्त बरगीत के अंतर्गत शंकरदेव ने खुद को हरि के दास के रूप में प्रस्तुत किए है । उन्होंने खुद को अत्यन्त दीन-हीन रूप में हरि के सामने अपने को उत्सर्गित किया है । हिंदी कवि तुलसीदास के समान भक्त जीवन का सर्वस्व उन्होंने हरि के चरणों में अर्पित किया है । 
शंकरदेव रचित श्रीकृष्ण के लीला प्रधान गीत भी हम सुन सकते है , यथा -
मधुर मुरुति मुरारु
मन देख हृदये हामारु ।
रुप अनंग संगे तुलना
तनु कोटि सुरुज उजियारु ॥

       अर्थात् मेरे हृदय रूपी मन में मुर नामक असुर को मारनेवाले श्रीकृष्ण का छवि मन में बैठ गया है । कृष्ण के रूप की कोई तुलना नहीं है , जैसे वह कोटि कोटि सुरज के समान उज्ज्वल हो । यहां शंकरदेव ने भक्ति भावना के साथ-साथ कृष्ण के लीलाओं का वर्णन भी पूर्ण रूप में किया है । भक्ति भावना के क्षेत्र में शंकरदेव की तुलना गोस्वामी तुलसी दास जी से कर सकते है । तुलसी के राम और शंकरदेव की हरि की व्यापकता अत्यन्त विशाल है । गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ की एक चौपाई निम्नांकित है –

‘ हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
कहहि सुनहि बहुविधि सब संता ॥ '

       शंकरदेव की हरि जिस प्रकार सगुण ब्रह्म की भक्ति भावना से परिवेष्टित होकर भी निर्गुण की ओर अनन्त गतिवान है, ठीक उसी प्रकार तुलसी के राम भी सगुण से कहीं अधिक व्यापकता लिए हुए है । शंकरदेव का असमीया साहित्य एवं समाज के लिए योगदान अद्वितीय रहा । वैष्णव धर्म एवं साहित्य के उत्थान के लिए शंकरदेव और उनके शिष्यों का योगदान अत्यन्त सराहनीय रहा ।
       उपरोक्त विवेचन के पश्चात हम शंकरदेव द्वारा रचित बरगीतों की मधुरता एवं गहनता का आभास पा सकते है । बरगीत असमीया समाज एवं नव वैष्णव धर्म की प्राण स्पन्दन है । बरगीत के गायकी के द्वारा भक्त अपने हृदय के सर्वस्व भगवान को अर्पित कर सकते है । अत: बरगीत यानी बरा गीत जो साधारण गीतों से उच्चकोटि के माने जाते हैं । 



डॉ. मीनाक्षी देवी 
एसिस्टेंट प्रोफेसर
हैंडिक गार्लस् कॉलेज , गुवाहाटी

Post a Comment

0 Comments