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হিন্দী কবিতা,चोर की टाँगे, बबिता हाजरिका डेका, ৪ৰ্থ বছৰ ২য় সংখ্যা

 

चोर की टाँगे



जलेबी की रेडी पर शाम को गई थी, 
बच्चों ने जलेबियाँ मंगाई थी, 
मैं खड़ी जलेबियाँ पकते देख रही थी
तब विचार आया हम सब जलेबी ही तो है...
आड़े-तिरछे, गोल-घुमावदार,
मीठे रस भरे, सब कुछ हैं हम
बस सीधे नहीं ।
ना सीधापन हमें समझ आता है
सीधेपन के पीछे की अदृश्य वक्रता 
हमारी नजरों से कभी बचती नहीं जनाब !
गर कोई सीधा सादा मिला भी तो वो
जरूर किसी नीजी स्वार्थ के कारण ऐसा
व्यवहार करता सा लगता है 
फिर हम उसे 'आलू', 'चीनी', 'मिठाई', 
'घी' , 'मक्खन' आदि नाम देते हैं
क्यों न दे ! क्योंकि
चोर को ही तो चोर की टाँगे दिखती है ।





बबिता हाजरिका डेका
हिंदी शिक्षिका
छयगाँव चम्पकनगर गर्ल्स हाईस्कूल
शिक्षा खंड : छयगाँव

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