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হিন্দী কবিতা, आवभगत, मनबीनी दास, ৪ৰ্থ বছৰ ৪ৰ্থ সংখ্যা

 आवभगत



वो आए थे
पेड़-पौधा बनके
इमारत के लिए उसको टुकड़े-टुकड़े किया
इमारत में अभी ऑक्सीजन रहते नहीं !

वो आए थे
निरपेक्ष बनके
खातिरदारी की बजाय
हमने उसको बाँट लिया
हिन्दु - मुस्लिम -ईसाई
गुम हो गया वह ।

वो आए थे
साथी बनके
आवभगत की राह में मिला
लिंग आधारित उत्पीड़न ।
अशिक्षित मानसिकता को छोड़ना पड़ा ।

वो आए थे
सतता की फूल से
मेहमानदारी बाग को कुटिलता ने धोखा दिया ।
प्रार्थना की आकाश में सूरज निकलता ही है
फूल खिल उठी ।


वो आए थे
खुली हुई खिड़की बनके
खुली हवाओं ने उसे अभिवादन किया
सिर्फ पद के दरवाजे को पहचाननेवाले को क्या पता निःस्वार्थ नाम का अमृत भी है ।




मनबीनी दास
हिंदी शिक्षिका
घटनगर मध्य इंराजी विद्यालय
शिक्षाखंड : छयगाँव

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